राजनीतिक-धार्मिक आन्दोलन
ऐसे आन्दोलन जिसके अन्तर्गत धार्मिक
अवलम्बन लेकर समुदाय ,समाज तथा क्षेत्रीय शोषण और बाहरी प्रभाव को समाप्त कर अपनी
व्यवस्थता स्थापित करना था, इसलिए इसे राजनीतिक-धार्मिक आन्दोलन की संज्ञा की दी
गई। यथा-
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सन्यासी
विद्रोह (1763-1800)- गिरि सम्प्रदाय के
सन्यासी लोगों पर तीर्थ स्थानों पर आने जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। 1770
ईस्वी में बंगाल में भयंकर अकाल में भू-राजस्व वसूलना तथा तीर्थयात्रा पर
प्रतिबन्ध लगाना इस विद्रोह का प्रमुख कारण बना। इस विद्रोह का उल्लेख ‘वन्दे
मातरम’ के रचयिता बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनन्दमठ’
में किया है। हिन्दू–मुस्लिम की एकता इस विद्रोह की प्रमुखता थी। इस विद्रोह के
प्रमुख नेताओं में मजमून शाह, मूसा शाह, द्विजनारायण, भवानी पाठक, चिरागअली तथा
देवी चौधरानी प्रमुख है।
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फकीर विद्रोह
(1776-1777)- इसके प्रमुख नेता मजमुन शाह और चिराग
अली थे। ये लोग सूफी परम्पराओं से प्रभावित थे। इस विद्रोह का प्रमुख कारण
जमींदारों और कृषकों से अत्यधिक लगान वसूली था। जो अकाल के दौरान की गई। इस
विद्रोह का प्रमुख केन्द्र दीनाजपुर, मालदा व रंगपुर था। जेम्स रेनल ने मजमुन शाह
को पराजित किया, जिसके पश्चात् चिराग अली ने इस का आन्दोलन का नेतृत्व किया। 19वीं
शताब्दी के आरम्भ में ब्रिटिश सरकार ने इस विद्रोह को दबा दिया।
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पागलपंथी
विद्रोह (1813-1831)- पागलपंथी गारो जनजाति का
एक अर्ध-धार्मिक सम्प्रदाय था जो उत्तर-पूर्व भारत में करमशाह द्वारा चलाया गया
था। करमशाह का पुत्र टीपू मीर इस विद्रोह का नेता था जिसने इस आन्दोलन का नेतृत्व
किया।1813 में जमींदारों के विरुद्ध काश्तकारों के समर्थन में यह विद्रोह किया।
किन्तु 1831 में इस विद्रोह को दबा दिया गया।
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फरैजी विद्रोह
(1818) – आधुनिक बांग्लादेश के फरीदपुर में हाजी
शरीय तुल्ला के अनुयायियों, जिन्हें फरैजी की संज्ञा दी गई थी। यह आन्दोलन 1818
में प्रारम्भ किया गया। जिसका मुख्य उद्देश्य मुस्लिम समाज में प्रचलित कुरीतियों
को दूर करना था। शरीयतुल्ला के पुत्र दादूमीर ने इसका नेतृत्व किया। यह सम्प्रदाय
भी जमींदारों द्वारा अपने किसानों पर अत्याचार के विरोध में था। फरैजी विद्रोह
1838 से 1857 तक चलता रहा तथा अन्त तक इस सम्प्रदाय के अनुयायी वहाबी दल में
सम्मिलित हो गए। फरैजियों की तुलना ‘रेड रिपब्लिकन्स’ से भी की गई है।
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वहाबी विद्रोह
(1820-1870)- वहाबी आन्दोलन मूलतः अरब देश में
मोहम्मद-इब्न-अबल-ए वाहिब द्वारा (1703-1787) आरम्भ किया गया धार्मिक आंदोलन था।
जिसका उद्देश्य दारूल हरबु(काफिरों का देश) को दारूल इस्लाम (मुसलमानों का देश)
बनाकर इस्लाम प्रचार करना था। 1857 में इस आन्दोलन की शुरुआत हुई थी।उत्तर-पश्चिम
से अफगान संकट उत्पन्न करने के डर के कारण 1860 में अंग्रेजों ने इसका दमन करना
प्रारम्भ कर दिया। वहाबी आन्दोलन ब्रिटिश राज्य के विरुद्ध भारत में मुस्लिम राज्य
की स्थापना करने के उद्देश्य से प्रेरित था। इसका स्वरुप पूर्णतः साम्प्रदायिक था।
Ø कूका आन्दोलन(1840)- यह आन्दोलन भगत जवाहर मल उर्फ सेन साहब के नेतृत्व में पश्चिमी पंजाब में किया गया। प्रारम्भ में यह धार्मिक स्वरुप का था ,जिसने बाद में राजनीतिक रुप ले लिया। सेन साहब के शिष्य बालक सिंह इसका मुख्यालय हजारा में बनाया। बालक सिंह के शिष्य रामसिंह कूका ,जिन्हें गुरु गोविन्द सिंह का अवतार माना जाता है, ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। 1872 में रामसिंह को कैदकर रंगून निर्वासित कर दिया गया जहाँ 1885 में उनकी मृत्यु हो गई। नामधारी सिक्ख सम्प्रदाय की स्थापना 14 अप्रैल 1857 क भाइनी आराइया गाँव जिला लुधियाना में हुई, जिसकी स्थापना का श्रेय रामसिंह को दिया गया।
जनजातीय (आदिवासी ) विद्रोह
जानजातियों को पहली बार आदिवासी नाम से
ठक्कर बापा सम्बोधित किया था। आदिवासी बाहरी लोगों को दिकू नाम से पुकारते थे।
महाजन, जमींदारों व अधिकारियों के शोषण से क्षुब्ध होकर आदिवासियों ने निम्नलिखित
विद्रोह कर दिये।
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चुआर तथा हो
विद्रोह(1768-72ई.)- इसे भूमि विद्रोह भी
कहते है। चुआर लोग बंगाल में मेदिनीपुर जिले की आदिम जातियाँ थी। अकाल व बढ़े लगान
के कारण इन्होंने हथियार उठा लिये। जिनका साथ दलभूम, कैलापाल, ढोल्का, व बाराभूम
के राजाओं ने दिया था। इस आन्दोलन का नेतृत्व राजा जगन्नाथ व दुर्जन सिंह ने किया,
जिन्होने लगान देना बंद कर दिया था। परन्तु 30वर्ष पश्चात् यह आन्दोलन समाप्त हो
गया। इस आन्दोलन में छोटा नागपुर व सिंह भूमि जिले की हो जनजाति ने भी बढ़े राजस्व
कर के कारण जमींदार व अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।
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पालीगारों का
विद्रोह(1801-05ई.)- टीपू सुल्तान के हार के
पश्चात् डिंडीगुल तथा मालाबार के पालीगारों ने अंग्रेजों की भूमि कर व्यवस्था के
विरुद्ध विद्रोह किया। जिसके नेता वीर पी. कट्टवामन थे।
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दीवान
वेलुथम्पी का विद्रोह(1808-09ई.)- केरल के
त्रावणकोर राजा ने लार्ड वेलेजली की सहायक संधि स्वीकार करने से मना कर दी तो
अंग्रेजों ने राजा को अपदस्थ कर दिया, जिसका विरोध उसके दीवान बेलुथम्पी ने किया,
इस विद्रोह का समर्थन नायर बटालियन ने भी किया। विद्रोह में संघर्षरत बेलुथम्पी
घायल हो गये, जिससे उनकी मृत्यु हो गई।
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पाइक विद्रोह
(1817-1825ई.)- पाइक लगान मुक्त भुमि का उपयोग करने
वाले उड़ीसा के खुर्दा क्षेत्र के सैनिक थे। अंग्रेजों ने इस लगान मुक्त भूमि पर
कर लगा दिया, जिसकी वसूली कड़ाई से की जाने लगी।खुर्दा के राजा पाइकों को साथ लेकर
सन्1804 में विद्रोह कर दिया।और अग्रेजों को परास्त किया। कुछ वर्ष बाद 1817 में
पाइकों ने जगबन्धु के नेतृत्व में पुनः विद्रोह किया, और अंग्रेज सेना को परास्त
कर पुरी पर अधिकार कर लिया। परन्तु कठिन संघर्ष केअंग्रेजों ने पाइकों के विद्रोह
का 1825 में दमन कर दिया।
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भील विद्रोह (1818-21ई.)-
भील विद्रोह 1818 ई. में खानदेश (महाराष्ट्र) से आरम्भ हुआ। भीलों की आदिम जाति
पश्चिमी तट के खानदेश में रहती थी जहाँ अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया था। भीलों ने
1820 में दशरथ के नेतृत्व में विद्रोह किया, परन्तु अंग्रेजी सेना ने इसे दबा
दिया।1822 में हिरिया के नेतृत्व में तथा 1825 में सेवरम के नेतृत्व में पुनः
विद्रोह हुआ।इस प्रकार भीलों का यह विद्रोह 1857 तक जारी रहा। पुनः 1921 ई. में
मोतीलाल तेजवार ने जमींदारों द्वारा ली जाने वाली बेट बेगार के विरोध में नीमड़ा
गाँव में विशाल सम्मेलन आहूत किया, अंग्रेजों को पता चलने पर विद्रोह के दमन हेतु
विशाल सेना भेजी। और मोतीलाल तेजवार को सेंट्रल जेल में डाल दिया गया। जो 1945 ई.
में छूटे। इस दमन चक्र में कुल 1200 से अधिक भील मारे गये।
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कच्छ का
विद्रोह (1818-31ई.)- कच्छ के राजा भारमल को
1819 ई. में अंग्रेजों ने अपदस्थ कर उनके अल्पव्यस्क पुत्र को राजगद्दी पर बैठा
दिया। तत्पश्चात् भारमल व उनके समर्थक सरदार झरेजा ने विद्रोह कर दिया। लम्बे
संघर्ष के फलस्वरुप 1831 में भारमल को पुनः गद्दी मिल गई और वह शान्त हो गया।