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मंगलवार, 18 मई 2021

Fundamental Rights

                  (FUNDAMENTAL RIGHTS)

 इंग्लैण्ड का संविधान अलिखित है, इसलिए इंग्लैण्ड में मूल अधिकारों की वैसी कोई संहिता नहीं है, जैसी अमेरिका के संविधान में है या विश्व के किसी अन्य लिखित संविधानों में है। इसका अर्थ यह नहीं है, कि इंग्लैण्ड में व्यक्ति के इन आधारभूत अधिकारों की कोई मान्यता नहीं है, जिसके बिना लोकतंत्र अर्थहीन हो जाता है।

भारत में साइमन आयोग और संयुक्त संसदीय समिति, जो भारत शासन अधिनियम 1935 के लिए उत्तरदायी थी, मूल अधिकारों की घोषणाओं को अधिनियमित करने के विचार को इस आधार पर नामंजूर कर दिया, कि अमूर्त घोषणायें व्यर्थ होती है। जब तक उन्हें प्रभावी करने की इच्छा शक्ति और साधन विद्यमान न हो।

भारत के संविधान के भाग-3 में बहुत से मौलिक अधिकार समाविष्ट किये गये है।(कुछ अपवादों के अधीन रहते हुये जिनका उल्लेख बाद में किया जायेगा), न केवल कार्यपालिका बल्कि विधानमण्डल की शक्तियों पर भी लगाई गई मर्यादाओं के रुप में है।

हमारे भारतीय संविधान में राज्यों को कोई ऐसा अधिकार नहीं दिया गया है, जिसे न्यायालय द्वारा प्रवर्तित किया जा सके। राज्य पर संविधान के अन्य उपबन्धों द्वारा कुछ मर्यादाएँ लगायी गयी है। इन मर्यादाओं से व्यक्ति को ततस्थानी अधिकार प्राप्त होता है, कि यदि कार्यपालिका या विधानमण्डल उनका उल्लंघन करता है, तो वह उन्हें न्यायालय के माध्यम से प्रवृत्ति करायें।

संविधान के भाग-3 में मूल अधिकारों और अन्य भाग में अन्तर्विष्ट मर्यादाओं से उत्पन्न होने वाले ऐसे अधिकारों के बीच, जो समान रुप से न्यायालय द्वारा प्रवृत्त करायें जा सकते है, उनमें क्या अन्तर है। इन दोनों वर्गों के अधिकार समान रुप से न्यायाधीन है। न्यायालय उच्चतम न्यायालय से सीधे आवेदन करके अनुच्छेद-32 के अधीन उपचार पाने का अधिकार भाग-3 में मूल अधिकार के रुप में सम्मिलित किया गया है। “यह अधिकार मूल अधिकार की दशा में ही उपलब्ध होता है।“ यह अधिकार संविधान के किसी अन्य उपबन्ध से प्राप्त होता है। उदाहरण के लिये- अनुच्छेद-265 या 301. तो व्यथित व्यक्ति सामान्य वाद लाकर या उच्च न्यायालय में अनुच्छेद-226 के अधीन आवेदन देकर अनुतोष प्राप्त कर सकेगा, किन्तु अनुच्छेद-32 के अधीन आवेदन नहीं हो सकेगा, जब तक कि ऐसे अधिकार के अतिक्रमण के कारण मूल अधिकारों का उल्लंघन नहीं होता है।

गोलकनाथ के एक वाद के निर्णय तक उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया था, कि हमारे संविधान का कोई ऐसा भाग नहीं है, जिसका संशोधन नहीं किया जा सकता और अनुच्छेद-368 की अपेक्षाओं के अनुपालन में संविधान संशोधन अधिनियम पारित करके संविधान के किसी भाग का संशोधन हो सकता है।

24वें संविधान संशोधन अधिनियम 1971 द्वारा अनुच्छेद-13 और अनुच्छेद- 368 का संशोधन करके यह स्पष्ट किया गया कि अनुच्छेद-368 में अधिकथित प्रक्रिया के अधीन मूल अधिकारों के प्रक्रिया का संशोधन किया जा सकता है।

केशवानन्द भारती मामले में बहुमत ने इस संशोधन की विधि मान्यता को स्वीकार करते हुये गोलकनाथ के मामले को उलट दिया गया। उसमें यह अभिनिर्धारित किया गया कि संसद अनुच्छेद-368 के अधीन मूल अधिकारों का संशोधन करने के लिये सक्षम है। यह अनुच्छेद मूल अधिकारों के पक्ष में कोई अपवाद का सृजन नहीं करता और न ही अनुच्छेद-13 के अधीन मूल अधिकारों के संशोधन में सक्षम है।

यह अनुच्छेद मूल अधिकारों के पक्ष में कोई अपवाद का सृजन नहीं करता और न ही अनुच्छेद-13 के अधीन ऐसे अधिनियम आते है, जो स्वयं संविधान का संशोधन करते हो, साथ ही केशवानन्द भारती के वाद में यह भी अभिनिर्णित हुआ, कि संशोधन की शक्ति की कुछ विविचित मर्यादायें है। इस शक्ति के प्रयोग से संविधान के आधारित लक्षणों में परिवर्तन नहीं किया जा सकता। अन्ततोगत्वा अनुच्छेद-368 में खण्ड-4 और खण्ड-5 अन्तःस्थापित करके 42वे संविधान संशोधन अधिनियम 1976 से यह स्पष्ट किया गया, कि “इस संविधान का (जिसके अन्तर्गत भाग-3 के उपबन्ध है।), इस अनुच्छेद के अधीन किया गया कोई संशोधन किसी न्यायालय में किसी आधार पर प्रश्नगत नहीं किया जायेगा।“ अनुच्छेद -368 के खण्ड-4 और खण्ड-5 को संविधान के आधारिक लक्षणों का उल्लंघन करने का आधार पर अधिनियम घोषित किया गया है।

मूल अधिकारों का निलंबन-

जैसा कि विदित है, मूल अधिकार अत्यान्तिक अधिकार नहीं है, इन अधिकारों के प्रयोग पर युक्तियुक्त निर्बन्धन लगाये जा सकते है। निम्न दशाओं में नागरिकों के मूल अधिकारों को निर्बन्धित या निलम्बित किया जा सकता है-

 

1. प्रतिरक्षा सेना के सदस्यों के सम्बन्ध में (अनुच्छेद-33)

2. जब सेना विधि लागू हो(अनुच्छेद-34)।

3. संविधान के संशोधन द्वारा(अनुच्छेद-368)।

4. आपात घोषणा के अधीन(अनुच्छेद-352)।

संविधान के मूल अधिकारों का सात समूहों में वर्गीकरण किया गया है, किन्तु वर्तमान में कुल छः मौलिक अधिकार है। इनमें छठां मौलिक अधिकार ‘सम्पत्ति का अधिकार’ 44वें संशोधन अधिनियम द्वारा हटा दिया गया।

1. समता का अधिकार।

2. स्वतन्त्रता का अधिकार।

3. शोषण के विरुद्ध अधिकार।

4. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार।

5. संस्कृति एवं शिक्षा सम्बन्धी अधिकार।

6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

कुछ मौलिक अधिकार केवल नागरिकों को दिये गये है, जो निम्नलिखित है-

(I) धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद से प्रतिषेध (अनुच्छेद-15) ।

(II) लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता (अनुच्छेद-16) ।

(III) वाक् स्वतन्त्रता, संवेग होने, संगम बनाने, संचरण, निवास और वृत्ति की स्वतन्त्रता (अनुच्छेद-19) ।

(IV) अल्पसंख्यकों को संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार (अनुच्छेद-29, 30)।

कुछ  मूल अधिकारों की अभिव्यक्ति नकारात्मक है, वे राज्य के विरुद्ध प्रतिषेध है। उदाहरण के लिए- अनुच्छेद-14 में यह कहा गया है, कि “राज्य किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से वंचित नहीं करेगा।“ इसी प्रकार का उपबंध अनुच्छेद-15(1), 16(2), 18(1), 20, 22(1) और 28(1) में है। जबकि कुछ अन्य कि अभिव्यक्ति सकारात्मक है और वे व्यक्ति को कुछ सुविधाएँ प्रदत्त करते है। उदाहरण के लिए- अनुच्छेद-25 के अधीन संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार। एक और वर्गीरकरण इस दृष्टि से किया जा सकता है कि विधायी शक्ति पर विभिन्न मूल अधिकारों में किस विस्तार तक मर्यादाएँ अधिरोपित की गयी हैं।

1. कुछ मूल अधिकार ऐसे है। जैसे-21, जो कार्यपालिका के विरुद्ध है, किन्तु जो विधानमण्डल पर कोई मर्यादाये नहीं बनाते। उदाहरण के लिए – अनुच्छेद-21 केवल यही कहता है, कि “किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतन्त्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार वंचित किया जायेगा अन्यथा नहीं।

2. इसके विपरीत दूसरी ओर कुछ मूल अधिकार ऐसे है, जो विधायी शक्ति पर अत्यान्तिक मर्यादाएँ लगाती है, जिससे विधानमण्डल उन अधिकारों के प्रयोग को विनियमित नहीं कर सकते। उदाहरण- अनुच्छेद-15,17,18,20,24, प्रत्याभूत अधिकार है।

3. इन दो वर्गों के बीच अनुच्छेद-19 द्वारा प्रत्याभूत अधिकार है।

अनुच्छेदः12- संविधान के भाग-3 में निहित मूल अधिकार राज्य के विरुद्ध प्राप्त है। अनुच्छेद-12 संविधान के भाग-3 के प्रयोजन के लिये राज्य शब्द की परिभाषा कहता है। यह परिभाषा संविधान के अन्य अनुच्छेद में प्रयुक्त राज्य शब्द पर लागू नहीं होती है। अनुच्छेद-12 के अनुसार राज्य शब्द के अन्तर्गत निम्नलिखित शामिल है-

1. भारत सरकार एवं संसद

2. राज्य सरकार एवं विधानमण्डल

3. स्थानीय प्राधिकारी- अनुच्छेद-12 के सन्दर्भ में प्राधिकारी शब्द का अर्थ है, जिन्हें विधि, उपविधि, आदेश, अधिसूचना आदि के निर्माण या जारी करने की शक्ति होती है और साथ ही साथ प्रवर्तित करे की भी शक्ति होती है। यदि किसी अधिकारी को ऐसी शक्ति प्राप्त है, तो वह राज्य की परिभाषा के अन्तर्गत आता है।

4. अन्य प्राधिकार- इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड राजस्थान बनाम मदनलाल के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है, कि अनुच्छेद-12 में प्रयुक्त अन्य प्राधिकारी शब्द में वे सभी प्राधिकारी आते है, जो संविधान या किसी नियम द्वारा स्थापित किये जाते है, जिन्हें विधि, उपविधि आदि निर्मित करने की शक्ति प्राप्त होती है।

इस तरह राज्य को विस्तृत रुप में परिभाषित किया गया है, इसमें शामिल इकाईयों के कार्यों को अदालत में चुनौती दी जा सकती है, तब जबकि मूल अधिकारों का हनन हो रहा हो।

उच्चतम न्यायालय के अनुसार किसी भी उस निजी इकाई या एजेन्सी को, जो बतौर राज्य की संस्था काम कर रही हो, वह अनुच्छेद-12 के तहत् राज्य के अर्थ में आती है।

अनुच्छेदः13- मूल अधिकारों से असंगत व उनका अल्पीकरण करने वाली विधियाँ।

13(1)-इस संविधान के लागू होने के ठीक पहले प्रवृत्त विधियाँ, उस मात्रा तक शून्य होगी, जहाँ तक कि वे भाग-3 के उपबन्धों से असंगत है।

13(2)-राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा, जो भाग-3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छिनती या न्यून करती है और यह घोषित करता है, कि इस खण्ड के उल्लंघन में बनायी गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी।

13(3)- इसे अन्तर्गत भारत में विधि का बल रखने वाली कोई अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, उपनियम, अधिसूचना, रूढ़ी और प्रथा आती है।

इस प्रकार इस अनुच्छेद में उल्लिखित किसी भी विधि या उपविधि या कार्यकारिणी के आदेश द्वारा यदि मूल अधिकारों का अतिक्रमण होता है, तो उनकी विधि को न्यायालय द्वारा चुनौती दी जा सकती है।

वस्तुतः अनुच्छेद-13 मूल अधिकारों का आधार स्तम्भ है, यह न्यायालयों को वह शक्ति प्रदान करता है, जिनके आधार पर मूल अधिकारों से असंगत विधियों को वे अवैध घोषित करते है। यह उच्चतम न्यायालय को नागरिकों के मूल अधिकारों का प्रहरी बना देता है। न्यायालय की इस शक्ति को न्यायिकपुनर्वीलोकन की शक्ति कहते है।

न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति- वस्तुतः संविधान का अनुच्छेद-13 न्यायालयों को न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति प्रदान करता है। यह शक्ति उच्चतम न्यायालय (अनुच्छेद-32 के तहत्) तथा उच्च न्यायालय(अनुच्छेद-226 के तहत्) को ही प्रदान की गयी है। उच्चतम न्यायालय अपनी इस शक्ति के अधीन विधानमण्डलों द्वारा पारित किसी अधिनियम को असंवैधानिक घोषित कर सकता है, जो संविधान के भाग-3 में दिये गये किसी उपबन्ध के असंगत है।

नोट- न्यायिक पुनरावलोकन का सिद्धान्त सर्वप्रथम अमेरिका के न्यायालय में प्रतिपादित किया गया।

अनुच्छेद-13 का प्रभाव भूतलक्षी नहीं है, यह उसी दिन से प्रभावी होता है, जिस दिन से संविधान लागू किया गया है। मूल अधिकारों से असंगत संविधान पूर्व विधियां लागू होने को पश्चात् ही अवैध होंगी।

पृथक्करण का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार यदि किसी अधिनियम का अवैध भाग उसके शेष भाग से बिना विधानमण्डल के आशय अर्थात अधिनियम के मूल उद्देश्य को समाप्त किये बिना अलग किया जा सकता है, तो केवल मूल अधिकारों से असंगत वाला भाग ही अवैध घोषित किया जायेगा, पूरे अधिनियम को नहीं अनुच्छेद-13 में प्रयुक्त असंगत या विरोध की सीमा तक वाक्यांश से यह स्पष्ट है, कि अधिनियम के केवल वे भाग ही अवैध किये जायेंगे, जो मूल अधिकारों से असंगत है या विरोध में है, सम्पूर्ण अधिनियम को नहीं।

आच्छादन का सिद्धान्त- आच्छादन का सिद्धान्त अनुच्छेद-13(1) पर आधारित है। अनुच्छेद-13(1) के अनुसार संविधान पूर्ण विधियाँ संविधान लागू होने तक उस मात्रा तक अवैध होगी, जिस तक वे मूल अधिकारों से असंगत है, ऐसी विधियाँ प्रारम्भ से ही शून्य नहीं होती, बल्कि अधिकारों के प्रवर्तित हो जाने के कारण वे मृतप्रायः हो जाती है और उनका प्रवर्तन नहीं किया जा सकता, ऐसे कानून पूर्णतः लुप्त नहीं होते वे केवल मूल अधिकारों द्वारा आच्छादित हो जाते है और सुषुप्तावस्था में रहते है। संविधान लागू होने के पूर्व के सभी संव्यवहारों के लिये उनका अस्तित्व यथावत वैध बना रहता है और ऐसी विधि के अन्तर्गत अर्जित किये गये अधिकारों और दायित्वों को प्रवर्तित किया जा सकता है।

अधित्याग का सिद्धान्त- कोई व्यक्ति संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों को स्वेच्छा से त्याग नहीं सकता। बहराम खुर्सीद बनाम मुम्बई राज्य, मोथैया बनाम इनकम टैक्स कमिश्नर के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि कोई भी नागरिक संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों को त्याग नहीं सकता है। ये अधिकार न केवल व्यक्तिगत हित के लिये संविधान में निहित किये गये है, वरन् लोकनीति के रूप में पूरे समाज के हित के लिये प्रतिस्थापित किये गये है। ये संविधान द्वारा राज्य पर लगाये गये कर्त्तव्य और कोई भी व्यक्ति राज्य को ऐसे कर्त्तव्यों से मुक्त नहीं कर सकता।

संविधानोत्तर विधि- अनुच्छेद-13 को राज्य को ऐसी विधियों को पारित करने का निषेध करता है, जो भाग -3 में प्रदत्त अधिकारों को छिनती है या न्यून करती है, यदि राज्य ऐसी कोई विधि बनाता है, जो मूल अधिकारों से असंगत है, तो वह विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी, ऐसी विधियाँ प्रारम्भ से  शून्य होगी। वह विधि एक मृत विधि है, इसे संविधान संशोधन द्वारा या संविधानिक परिसीमाओं को हटाकर पुनः जीवित नहीं किया जा सकता है, इसे फिर से पारित करना आवश्यक होगा। यद्यपि मूल अधिकारों से असंगत संविधानोत्तर विधियाँ प्रारम्भ से ही शून्य होगी, फिर भी उनका अविधिमान्यता  द्वारा मान्यता न्यायालय द्वारा किया जाना आवश्यक है। इस तरह अनुच्छेद-13 घोषित करता है,कि संविधान संशोधन  कोई विधि नहीं है, इसलिए उसे चुनौती दी जा सकती है, यद्यपि उच्चतम न्यायालय ने केशवानन्द भारती मामले में कहा कि मूल अधिकारों के हनन के आधार पर संविधान संशोधन को चुनौती दी जा सकती है। यदि वह संविधान के मूल ढ़ाँचे के खिलाफ हो, तो उसे अवैध घोषित किया जा सकता है।

 उच्चतम न्यायालय द्वारा गोलकनाथ के मामले में दिये गये निर्णय के प्रभाव को समाप्त करने के लिये संसद ने 24वां संविधान संशोधन अधिनियम 1971 पारित किया, इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद-13(2) में संशोधन किया गया और इसमें निम्न वाक्यांश जोड़ा गया है- संसद द्वारा अनुच्छेद-368 के अन्तर्गत पारित कोई विधि अनुच्छेद-13(2) में प्रयुक्त विधि शब्द में  सम्मिलित नहीं है। केशवानन्द भारती बनाम केरलराज के मामले में उच्चतम न्यायालय ने 24 वें संविधान संशोधन अधिनियम को विधि मान्य घोषित कि दिया और गोलकनाथ में लिये निर्णय को उलट दिया।

वोलेगा डेनिस बनाम बॉम्बे कार्पोरेशन AIR 1986- उच्चतम न्यायालय ने अपना दृष्टिकोण दिया कि भारतीय संविधान के भाग-3 में किसी व्यक्ति को प्रदत्त मौलिक अधिकारों में से किसी भी अधिकार का वह त्याग नहीं कर सकता।

समता का अधिकार(अनुच्छेद-14 से 18)- अनुच्छेद-14 के अन्तर्गत भारत राज्यक्षेत्र में किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से अथवा विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जायेगा, चाह वह नागरिक हो या विदेशी। व्यक्ति शब्द के अन्तर्गत विधिक व्यक्ति अर्थात संवैधानिक निगम, कम्पनियाँ पंजीकृत समितियाँ या किसी अन्य तरह का विधिक व्यक्ति सम्मिलित है।

विधि के समक्ष समता का विचार ब्रिटिश से तथा विधियों के समान संरक्षण को अमेरिका के संविधान से लिया गया है। विधि के समक्ष समता एक नकारात्मक वाक्यांश है, जिसका तात्पर्य है-समान परिस्थिति वाले व्यक्तियों के साथ विधि द्वारा दिये गये विशेषाधिकारों तथा अधिरोपित कर्त्तव्यों दोनों के मामलें में समान व्यवहार किया जायेगा तथा प्रत्येक व्यक्ति देश के साधारण विधि के अधीन होगा। विधि के समान संरक्षण का तात्पर्य है कि- समान परिस्थिति वाले व्यक्ति के साथ समान व्यवहार करना।

समता के नियम के अपवाद-अनुच्छेद-14 में निहित समता का नियम अत्यान्तिक नहीं है। उदाहरण के लिए विदेशी उपनीतिज्ञों को न्यायालय की अधिकारिता से विमुक्ति प्राप्त है, इसी प्रकार भारतीय संविधान की कुछ अधिकारियों को साधारण नागरिकों से अधिक विशेषाधिकार प्रदान करता है।

अनुच्छेद-361 के अन्तर्गत भारत के राष्ट्रपति, प्रान्तों के राज्यपाल, लोकअधिकारियों, न्यायाधीशों तथा भूतपूर्व राज्यों के प्रदेशों को ऐसी विमुक्तियाँ प्रदान की गई है तथा साथ ही साथ अनुच्छेद-15(3), 15(4), 16(4), अनुच्छेद-14 के अपवाद स्वरूप है।

-        राष्ट्रपति या राज्यपाल पर उनके कार्यकाल के दौरान व्यक्तिगत सामर्थ्य से किये गये किसी कार्य के लिए किसी भी न्यायालय में दीवानी मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, हाँ यदि इस प्रकार का कोई मुकदमा चलाया जाता है, तो उन्हें इसकी सूचना देने के दो माह बाद ही ऐसा किया जा सकता है।

अनुच्छेदः15- धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर विभेद पर प्रतिषध।

राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा। जैसे- दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश या पूर्णतः या भागतः राज्यनिधि से पोषित या साधारण जनता के प्रयोग के लिए कुआँ, तालाबों सड़कों और सार्वजनिक समागम के उपयोग के बारे में किसी भी निर्योग्यता, दायित्व, निर्बन्धन या शर्त के अधीन नहीं होगा।

1. इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य के स्त्रियों और बालकों के लिए कोई विशेष उपबन्ध करने से निवारित नहीं करेगी।

2. इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद-29 खण्ड(2) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्ही वर्गों के उन्नति के लिए यह अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबन्ध करने से निर्वारित नहीं करेगी।

डी. पालराज बनाम यूनियम ऑफ इण्डिया- इस वाद में अनुच्छेद-15(3) के आधार पर महिलाओं का घरेलु हिंसा से संरक्षण अधिनियम 2005 को संवैधानिक घोषित किया गया।

3. अनुच्छेद-15(4) को प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम 1951 द्वारा संविधान में अन्तःस्थापित किया गया। यह संशोधन, मद्रास राज्य बनाम चम्पाकम दुरई राजम के वाद में न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय के प्रभाव को समाप्त करने के लिये किया गया, इसके द्वारा राज्य को निम्न के सम्बन्ध में विशेष उपबन्ध करने की शक्ति प्रदान की गई है-

-        शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण का प्रावधान अनुच्छेद-15(4) के तहत् ही किया गया है।

-        अनुच्छेद-15(5) के माध्यम से निजी शिक्षण संस्थाओं में छात्रों के प्रवेश के लिए स्थानों के आरक्षण का प्रावधान किया गया है। इसे 93वें संविधान संशोधन अधिनियम 2005 द्वारा जोड़ा गया है। अशोक ठाकुर बनाम भारत संघ के मामलें में संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से केन्द्रीय शिक्षण संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) को संवैधानिक घोषित किया है।

अनुच्छेदः16- लोकनियोजन की समानता।

1.     अनुच्छेद-16 यह कहता है, कि राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से सम्बन्धित विषयों में सभी नागरिकों के लिये अवसर की समानता होगी।

2.     कोई नागरिक केवल धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग उद्भव, जन्म स्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के सम्बन्ध में अपात्र नहीं होगा या उससे विभेद नहीं किया जायेगा।

-        राज्य की सेवा किसी व्यक्ति को केवल इस आधार पर अपवर्जित नहीं किया जा सकता कि वह क्षत्रिय है, यद्यपि विभिन्न जातियों में अनुपात या कोटे के अनुसार पदों के वितरण के कारण यह होता है।

-        अनुच्छेद-16(1) व (2) में राज्य की नौकरियों में समता का सामान्य नियम निहित है। राज्य के अधीन नियोजन या नियुक्ति के अवसर की समता के उक्त नियम के तीन अपवाद है, जो खण्ड-3, 4, 4(क) और 5 में उल्लिखित है।

-        अनुच्छेद-16(4) में जिस पिछड़ेपन की बात की गई है, वह मुख्यतः सामाजिक है। यह आवश्यक नहीं है,कि वह सामाजिक व शैक्षिक दोनों हो। कोई वर्ग तभी आरक्षण पायेगा। जब वह पिछड़ा हो और राज्य की सेवाओं में उसका प्रतिनिधित्व पर्याप्त न हो।

-        पिछड़े वर्गों की पहचान का न्यायिक पुनरावलोकन किया जा सकता है।

3.     अनुच्छेद-16(4) में अनुध्यात आरक्षण 50% से अधिक नहीं होना चाहिये। 50% का नियम प्रत्येक वर्ष लागू होना चाहिये। उसे किसी वर्ग सेवा या काडर के कुल संख्या बल से नहीं जोड़ा जा सकता।

Note- ध्यातव्य है कि बहुत से राज्य इस 50% की सीमा का अतिक्रमण करने का प्रयत्न कर से है। 

मूल ढ़ाँचे के विशेष गुण- अनुच्छेद-368 के तहत् संसद की वर्तमान स्थिति है, कि संसद संविधान में कोई ऐसा संशोधन नहीं कर सकती, जो संविधान के मूल ढ़ाँचे को प्रभावित करता हो। यद्यपि उच्चतम न्यायालय को अब भी इसकी परिभाषा देनी है एवं स्पष्ट करना है, कि मूल संविधान का मूल ढ़ाँचा किसे ठहराया जाय, अनेक फैसलों से संविधान के मूल ढ़ाँचे में निम्नलिखित चीजों को जोड़ा गया है-

1.     संविधान की सर्वोच्चता।

2.     भारतीय राज पद्धति की सम्प्रभु, लोकतान्त्रिक एवं गणतान्त्रक सम्प्रभु।

3.     संविधान की धर्म निरपेक्ष छवि।

4.     विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका की शक्तियों का विभाजन।

5.     संविधान का संघीय स्वरूप।

6.     राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता।

7.     कल्यणकारी राज्य(सामाजिक, आर्थिक और न्यायिक)।

8.     न्यायिक समीक्षा।

9.     व्यक्तिगत स्वतन्त्रता एवं सम्मान।

10.संसदीय प्रणाली।

11.विधि का शासन।

12.मूल अधिकारों एवं निदेशक तत्वों के बीच सामंजस्य एवं सन्तुलन।

13.समानता का सिद्धान्त।

14.स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष निर्वाचन।

15.न्यायपालिका की स्वतन्त्रता।

16.संविधान संशोधन के सम्बन्ध में संसद की सीमित शक्तियाँ।

17.न्याय उपलब्धता।

18.तर्क संगतता।

अनुच्छेद-14 और अनुच्छेद-16 में सम्बन्ध- उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि अनुच्छेद-14 और अनुच्छेद-16 एक साथ पढ़े जाने पर समता के सिद्धान्त का और विभेद के अभाव का समावेश करती है। यह सिद्धान्त अनुच्छेद-14 में साधारण रूप से कहा गया है और इसका विस्तार सभी व्यक्तियों पर होता है, चाहे वे नागरिक हो या अन्य देशी। अनुच्छेद-15 और 16 इस समता के विशिष्ट पहलुओं के सम्बन्ध में है।

1. अनुच्छदे-15 का लाभ केवल नागरिकों को मिलता है और यह किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान या इनमें से किसी आधार पर विभेद करने पर प्रतिषेध करता है।

2. अनुच्छेद-16 भी नागरिकों तक सीमित है, किन्तु यह एक विशेष प्रकार के विभेद तक ही सीमित है अर्थात राज्य के अधीन नियोजन।

जो विषय अनुच्छेद-15 और 16 में नहीं आते है। उन पर विभेद होने पर अनुच्छेद-14 के साधारण उपबन्धों के अधीन विधिमान्यता पर आक्षेप किया जा सकता है।

अनुच्छेदः17- अस्पृश्यता का अन्त।

समता के अधिकार का एक विशिष्ट उदाहरण है, इस अनुच्छेद के तहत् अस्पृश्यता का अन्त किया जाता है और उसका किसी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है। अस्पृश्यता से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा, जो विधि के अनुसार दण्डनीय होगा। संसद ने 1955 में अस्पृश्यता अपराध अधिनियम 1955 पारित किया था। यह अधिनियम अस्पृश्यता के अपराध के लिये दण्ड की व्यवस्था करता है, इसके अनुसार अस्पृश्यता के अपराध के लिये अधिकतम 500रु. जुर्माना या छः माह की सजा या दोनों साथ-साथ दी जा सकती है, बाद में इसका नाम बदलकर ण निषिद्ध किया जाता है। अस्पृश्यता से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा, जो विधि के अनुसार दण्डनीय होगा। संसद ने 1955 में अस्पृश्यता अपराध अधिनियम 1955 पारित किया था। यह अधिनियम अस्पृश्यता के अपराध के लिये दण्ड की व्यवस्था करता है, इसके अनुसार अस्पृश्यता के अपराध के लिये अधिकतम 500रु. जुर्माना या छः माह की सजा या दोनों साथ-साथ दी जा सकती है, बाद में इसका नाम बदलकर “सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955” कर दिया गया। न तो अनुच्छेद-17 और न ही अस्पृश्यता अपराध अधिनियम 1955 में, अस्पृश्यता की परिभाषा दी गई। ध्यातव्य है, कि अनुच्छेद-17 द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार केवल राज्य के विरुद्ध ही नहीं वरन् प्राइवेट व्यक्तियों के लिये भी उपलब्ध है।

अनुच्छेदः18-  उपाधियों का अन्त।

अनुच्छेद-18 राज्य के किसी भी व्यक्ति को चाहे वह नागरिक हो या विदेशी को उपाधियाँ प्रदान करने से मना करता है, किन्तु अनुच्छेद-18 सेना या विद्या सम्बन्धी उपाधियों को प्रदान करने की अनुमति देता है।

उपाधि किसी नाम के साथ जुड़ी हुई संज्ञा होती है। ब्रिटिश शासन में राष्ट्रवादियों द्वारा यह शिकायत की जाती रही कि सरकार साम्राज्यवादी प्रयोजनों के लिये और सार्वजनिक जीवन भ्रष्ट करने के लिये उपाधियों को प्रदान करने की शक्ति का प्रयोग कर रही है। संविधान इस दुरुपयोग को रोकने के लिये राज्य को उपाधियाँ प्रदान करे से प्रतिसिद्ध करता है।

अनुच्छेद-18 खण्ड 2 भारत के किसी नागरिक को किसी विदेशी सरकार से कोई उपाधि स्वीकार करने से मना करता है तथा अनुच्छेद-18(3) के अनुसार कोई विदेशी व्यक्ति, जो राज्य के अधीन किसी विश्वसनीय पद पर है, बिना राष्ट्रपति के सहमति के किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता। 1954 में भारत सरकार ने चार प्रकार के सम्मान प्रारम्भ किये, जो है- भारत रत्न, पद्म विभूषण, पद्म भूषण, पद्म श्री।

भारत रत्न कला साहित्य और विज्ञान की उन्नति में की गई असाधारण सेवाओं के लिए और उच्च कोटि की लोकसेवाओं की मान्यता के रुप में दिया जाता है। ये उपाधियाँ अलंकरण मात्र है, जो उन्हें जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्ट योगदान देने पर प्रदान की जाती है।

अनुच्छेदः(19-22)- स्वतन्त्रता का अधिकार

वैयक्तिक स्वतन्त्रता के अधिकार का स्थान मूल अधिकारों में सर्वोच्च माना जाता है। भारतीय संविधान अनुच्छेद-19 से 22 तक में भरत के नागरिकों को स्वतन्त्रता सम्बन्धी विभिन्न अधिकार प्रदान किये गये है।

अनुच्छदे-19 भारत के सभी नागरिकों को मूल संविधान में सात स्वतन्त्रताएँ प्रदान करता था, किन्तु उनमें से एक अर्थात ‘सम्पत्ति का अर्जन, धारण,व्ययन का अधिकार’ संविधान के 44वें संशोधन अधिनियम 1978 द्वारा निकाल दिया गया है। अब इस अनुच्छेद में केवल छः स्वतन्त्रताएँ रह गई है, जो इस प्रकार है-       

अनुच्छेद-19(1)- सभी नागरिकोंको-

क. वाक् स्वतन्त्रता और अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता।

ख. शान्तिपूर्वक और निरायुध सम्मेलन की स्वतन्त्रता।

ग. संगम या संघ बनाने की स्वतन्त्रता।

घ. भागत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण की स्वतन्त्रता।

ड़. भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में निवास करने की स्वतन्त्रता।

च. निरसित

छ. कोई वृत्ति, जीविका, व्यापार या कारोबार करने की स्वतन्त्रता।

जैसा विदित है, कि उपर्युक्त स्वतन्त्रताएँ अत्यान्तिक नहीं है, किसी भी देश में नागरिकों के अधिकार असीमित नहीं हो सकते। संविधान के अनुच्छेद-19 के खण्ड-2 से 6 के अधीन राज्य को भारत की प्रभुता और अखण्डता की सुरक्षा, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार आदि की हितों की सुरक्षा के लिये निर्बन्धन लगाने के लिये स्वतन्त्र कर दिया गया है अर्थात निर्बन्धन केवल अनुच्छेद-19(2) से 19(6) के अधीन दिये गये आधारों पर ही लगाया जा सकता है। निर्बन्धन युक्तियुक्त होना चाहिए।

विभिन्न न्यायिक निर्णयों द्वारा निम्न को अनुच्छेद-19(1) क, के अन्तर्गत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधीन मूल अधिकार माना गया है। जैसे-

1. प्रेस की स्वतन्त्रता(शाकल प्रेस लिमिटेड बनाम भारत संघ, 1962)।

2. राष्ट्रीयध्वज फहराने का अधिकार (भारत संघ बनाम नवीन जिंदल, 2004)।

3. वाणिज्यिक भाषण

4. जानने का अधिकार

5. मतदाता को सूचना का अधिकार

6. चुप रहने का अधिकार (राष्ट्रगान का मामले में , इमैनुअल बनाम केरलराज, 1986)।

7. सुचनाओं तथा समाचारों को (इन्टरव्यु आदि) जानने का मामला (प्रभदत्त बनाम भारत संघ, 1982),( यह प्रेस की स्वतन्त्रताओं में आता है।)।

8. विदेश जाने का अधिकार (मेनका गाँधी बनाम भारत संघ, 1978)।

9. हड़ताल एवं बंदी का अधिकार (यह मौलिक अधिकार नहीं है।)(भारतीय मार्क्सवादी बनाम भरत कुमार व अन्य, 1998) बन्दी का आह्वान असंवैधानिक है।

अनुच्छेद-19(2)-निर्बन्धन के आधार

अनुच्छेद-19(2) में निम्न अधिकारों का उल्लेख है, जिनके आधार पर नागरिकों को वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर निर्बन्धन लगाया जा सकता है।

1. राज्य की सुरक्षा

2. विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपुर्ण सम्बन्धों के हित में

3. लोक व्यवस्था

4. शिष्टाचार या सदाचार के हित में

5. न्यायालय अवमानना मामले में

6. मान हानि

7. अपराध उद्दीपन के मामले में

8. भारत की प्रभुता एवं अखण्डता

अनुच्छेद-19(1) ‘ख’ और खण्ड-3- सभा और सम्मेलन की स्वतन्त्रता के अधिकार पर निम्नलिखित तीन आधारों पर नर्बन्धन लगाये जा सकते है-

1. सभा शान्तिपूर्ण होनी चाहिए।

2. सभा बिना हथियार के होनी चाहिए।

3. अनुच्छेद-19 खण्ड-3 के अन्तर्गत राज्य, लोक व्यवस्था के हित में युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगा सकता है।

यदि कोई सभा हिंसात्मक या जनशान्ति भंग करने वाली है, तो अनुच्छेद-19(1)’ख’ के सुरक्षा उसे नहीं प्राप्त होगी। दण्ड संहिता की धार-141 के अनुसार पाँच या पाँच से अधिक सभा अवैध होती है, यदि उस सभा को संगठित करने वाले व्यक्तियों का समान उद्देश्य-

1. किसी विधि या विधिक आदेशिका के निष्पादन का

2. विरोध करने का

3. कोई शरारत या अतिचार करने का

4. बलपूर्वक किसी की सम्पत्ति पर कब्जा करने  का  है।

अनुच्छेद-19(1)’ग’ और खण्ड-4- अनुच्छेद-19(1) ग, भारत के समस्त नागरिकों को संस्था या संघ बनाने की स्वतन्त्रता प्रदान करता है, किन्तु इस अनुच्छेद का खण्ड-4 राज्य को इस अधिकार पर लोक व्यवस्था क्रिया या नैतिकता के हित में  युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाने की शक्ति भी प्रदान करता है। यह स्थायी संस्था होती है और उनके  सदस्यों का उद्देश्य भी सामान्य होता है। इस प्रकार इसमें कम्पनी, सोसायटी, साझेदारी, श्रमिक संघ और राजनीतिक दलों आदि के बनाने का अधिकार सम्मिलित है।

निर्बन्धन के आधार- अन्य अधिकारों की भॉति इस अनुच्छेद के खण्ड-4 के अधीन राज्य को इस स्वतन्त्रता पर भी लोक व्यवस्था या सदाचार या देश की प्रभुता के हित में युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाने की शक्ति प्राप्त है। खण्ड-4 इस विषय से सम्बन्धित वर्तमान विधियों की भी रक्षा करता है, जो संघ या संस्था की स्वतन्त्रता से असंगत नहीं है।

अनुच्छेद-19(1)’घ’ और खण्ड-5-

निर्बन्धन के आधार पर-अनुच्छेद-19 खण्ड -5 को अन्तर्गत राज्य संचरण की स्वतन्त्रता पर निम्नलिखित आधारों पर युक्तियुक्त निर्बन्धन लगा सकता है

1. साधारण जनता के हित में।

2. किसी अनुसूचित जनजाति के हित के संरक्षण के लिए(इनका मुख्य उद्देश्य आदिम जनजातियों की सुरक्षा करना है, जो अधिकतम असम प्राप्त में रहती है।)।

अनुच्छेदः20-अपराधों के लिये दोष सिद्ध के सम्बन्ध में संरक्षण।

अनुच्छेद-20 उन व्यक्तियों को जिन पर अपराध करने का अभियोग लगाया गया है, निम्नलिखित संविधानिक सरक्षण प्राप्त करता है-

1. कार्योत्तर विधियों से संरक्षण

2. दोहरे दण्ड से सरंक्षण

3. आत्मअभिसंशन से संरक्षण

सेलवी बनाम कर्नाटक राज्य 2010 के वाद में तत्कालिक CGI के.जी. बालकृष्णन की अध्यक्षतावादी तीन सदस्यों के खण्डपीठ में सर्वसम्मति से यह धारित किया कि अभियुक्तों का नार्कोटिक्स, पॉलीग्राफी और ब्रेनप्रिन्टिंग टेस्ट कराना वर्जित है तथा मिस्टर एक्स बनाम मिस्टर जेड के वाद में DNA टेस्ट करना को इसका उल्लंघन नहीं माना गया।

अनुच्छेद-20(3) का संरक्षण तभी मिलेगा, जब निम्नलिखित शर्तें पूरी होगी-

- व्यक्ति पर अपराध करने का आरोप लगाया गया हो।

- उसे अपने विरुद्ध साक्ष्य देना हो।

- उसे अपने ही विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य किया जाय।

अनुच्छेदः21- प्राण और दैहिक स्वतन्त्रता का सरंक्षण

प्राण एवं दैहिक स्वतन्त्रता का अधिकार सभी अधिकारों से श्रेष्ठ है और अनुच्छेद-21 इसी अधिकार को संरक्षण प्रदान करता है।

हमारे संविधान ने दो प्रकार से दैहिक स्वतन्त्रता सुनिश्चित किये है।

1. यह उपबन्ध करके कि किसी व्यक्ति को विधि के अनुसार ही स्वतन्त्रता से वंचित किया जायेगा, अन्यथा नहीं

2. मनमानी गिरफ्तारी और निरोध के विरुद्ध कुछ विनिर्दिष्ट रक्षोपाय अधिकथित करके।

अनुच्छेद-21 में यह उपबन्ध है, कि- “किसी व्यक्ति को उसके प्राण एवं दैहिक स्वतन्त्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया द्वारा वंचित किया जायेगा अन्यथा नहीं”

अनुच्छेद-21 विधायिका तथा कार्यपालिका दोनों के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है। गोपालन बनाम मद्रास राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया था, कि अनुच्छेद-21 केवल कार्यपालिका के कृत्यों के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है। विधानमण्डल के विरुद्ध नहीं। अतएव विधानमण्डल कोई विधि पारित करके किसी विधि से उसके प्राण एवं दैहिक स्वतन्त्रता से वंचित कर सकता है, किन्तु मेनका गाँधी बनाम भारत संघ के मामले से उच्चतम न्यायालय ने गोपालन को दिये निर्णय को उलटते हुये यह निर्णय दिया कि-क्योंकि अनुच्छेद-21 केवल कार्यपालिका के कृत्यों के विरुद्ध नहीं बल्कि विधायिका के विरुद्ध भी सरंक्षण प्रदान करता है।

इस अनुच्छेद में नागरिक शब्द का प्रयोग न करके व्यक्ति शब्द का प्रयोग किया गया है। जिसका तात्पर्य है, कि अनुच्छेद-21 का सरंक्षण नागरिक एवं विदेशी सभी प्रकार के व्यक्तियों को प्राप्त है।

अनुच्छेद-21 में प्रयुक्त दैहिक स्वतन्त्रता पदावली पर्याप्त विस्तृत अर्थ वाली पदावली है और इस रूप में जिसके अन्तर्गत दैहिक स्वतन्त्रता के सभी आवश्यक तत्व शामिल है, जो व्यक्ति को बनाने में सहायक है तथा इस पदावली में अनुच्छेद-19 द्वारा प्रदत्त स्वतन्त्रता के सभी अधिकार भी आ जाते है।

मेनका गाँधी वाद में एक नया आयाम उच्चतम न्यायालय ने दिया। इसमें न्यायालय ने यह निर्धारित किया है, कि प्राण का अधिकार केवल भौतिक अस्तित्व तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें मानव गरिमा को बनाये रखते हुये जीने का अधिकार है।

अनुच्छेद-21(क)- सर्वप्रथम उन्नीकृष्णन के वाद में उच्चतम न्यायालय ने संसद को यह सलाह दिया, कि शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकार के रूप में होना चाहिए, जबकि ततसमय शिक्षा का अधिकार अनुच्छेद-45 के अन्तर्गत राज्य के नीति निदेशक तत्व के रूप में सम्मिलित था, परन्तु न्यायालय द्वारा दिये गये सलाह पर संसद द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गई। बाद में उच्चतम न्यायालय ने मोहनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में अपने ऐतिहासिक निर्णय में यह कहा कि- शिक्षा पाने का अधिकार अनुच्छेद-21 के अन्तर्गत प्रत्येक नागरिक का मूल अधिकार होना चाहिए।

अनुच्छेद-21(क) में घोषणा की गई है, कि राज्य 6 से 14 वर्ष तक के उम्र के बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध करायेगा तथा इसका निर्धारण राज्य करेगा, इस प्रकार व्यवस्था केवल आवश्यक शिक्षा के एक मूल अधिकार के अन्तर्गत है, न कि उच्च या व्यवसायिक शिक्षा के सन्दर्भ में।

यह व्यवस्था 86वें संविधान संशोधन अधिनियम 2002 के अन्तर्गत की गई है तथा मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया। “इस अधिकार को 1 अप्रैल 2010 से प्रभावी किया गया।“ 86वें संविधा  संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद-45 के स्थान पर नया अनुच्छेद प्रतिस्थापित कर राज्य को निर्देश दिया गया है, कि वह 6 वर्ष से कम आयु के बच्चों की देख-रेख तथा शिक्षा का प्रयास करेगा। साथ ही इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद-51(क) के खण्ड-ट के तहत् 11वाँ मूल कर्त्तव्य भी जोड़ा गया है। इसके अनुसार प्रत्येक माता-पिता या अभिभावक का यह मूल कर्त्तव्य है, कि वह अपने बालक या प्रतिपाल्य के लिये 6 से 14 वर्ष की आयु के बीच शिक्षा का अवसर प्रदान करेगा।

अनुच्छेदः22- बन्दीकरण और निरोध के विरुद्ध संवैधानिक संरक्षण।

अनुच्छेद-22 किसी व्यक्ति को गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण प्रदान करता है। अनुच्छेद-22 के अनुसार गिरफ्तारियाँ दो प्रकार की होती है-

1. सामान्य दण्ड विधि के अधीन।

2. निवारक निरोध विधि के अधीन।

अनुच्छेद-22 के खण्ड-1, 2 सामान्य दण्ड के अधीन गिरफ्तारियों से सम्बन्धित है और उस प्रक्रिया को निहित करते है। जिसका पालन किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी करते समय किया जाना चाहिए। खण्ड-3,4,5,6,7 निवारक निरोध विधि के अधीन गिरफ्तारी से सम्बन्धित है और प्रक्रिया को निहित करते है। जिसका पालन किया जाना आवश्यक है।

सामान्य विधि के अधीन गिरफ्तारी से संरक्षण- अनुच्छेद-22 के खण्ड-1,2 किसी अपराध के सम्बन्ध में गिरफ्तारी हुए व्यक्तियों को निम्न अधिकार प्रदान करते है-

1. गिरफ्तारी के कारणों को सिद्धातिसिद्ध बताये जाने का अधिकार है।

2. अपने रुचि के वकील से परामर्श एवं बचाव करने का अधिकार।

3. गिरफ्तारी के बाद 24 घण्टे के अन्दर किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किये जाने का अधिकार।

4. 24घण्टे से अधिक मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना निरोध से स्वतन्त्रता।

- उक्त संरक्षणों का उल्लंघन गिरफ्तारी को असंवैधानिक बना देता है।अनुच्छेद-22 के खण्ड-1 और 2 द्वारा प्रदत्त चारों अधिकार- किसी विदेशी शत्रु को, निवारक निरोध विधि के अधीन निवारक व्यक्तियों को नहीं प्राप्त है।

निवारक निरोध विधि के अधीन- अनुच्छेद-22 खण्ड 4 से 7 निवारक निरोध के बारे में है। निवारक निरोध कानून लोकतान्त्रिक प्रणाली के प्रतिकूल होने के कारण भारतीय संविधान के अलावा विश्व के किसी भी जनतान्त्रिक संविधान का अंग नहीं है। सामान्यतया विश्व के अन्य देशों में केवल आपातकाल में निवारक निरोध व्यवस्था लागू की जाती है, किन्तु भारतीय संविधान आपात एवं शान्ति दोनों के समय के लिए निवारक निरोध की व्यवस्ता करता है।

यह एक निवाराणात्मक कार्यवाही है, जो किसी व्यक्ति को अपराध करने से रोकती है। इसमें व्यक्ति को सामान्य न्याय प्रक्रिया से इतर केवल सन्देह के आधार पर अपराध करने से पूर्व गिरफ्तार कर लिया जाता है। निवारक निरोध के अधीन निरुद्ध व्यक्ति को निम्न अधिकार प्राप्त है-

1. गिरफ्तारी का आधार जानने का

2. अभ्यावेदन के अवसर का

3. तीन माह से अधिक निरुद्ध न किये जाने का

निवारक निरोध अधिनियम 1950 में संसद द्वारा पारित यह अधिनियम 31 दिसम्बर 1969 तक प्रवर्तन में रहा। इसके अन्तर्गत नजरबन्दी की अवधि एक वर्ष थी।

 

अनुच्छेदः(23-24)- शोषण के विरुद्ध अधिकार

अनुच्छेद-23 व 24 के अन्तर्गत शोषण के विरुद्ध  मूल अधिकार प्रदान किया गया है। अनुच्छेद-23 मानव दुर्व्यापार बलात्श्रम आदि का प्रतिषेध करता है तथा अनुच्छेद-24 के अन्तर्गत कारखानों आदि में बालकों के नियोजन पर रोक लगाया गया है।

मानव दुर्व्यापार एक बहुत ही विस्तृत शब्दावली है। इसमें केवल मनुष्यों या स्त्रियों का वस्तुओं की भॉति क्रिय-विक्रय ही शामिल नहीं है। वरन् स्त्रियों एवं बच्चों का अनैतिक व्यापार करना और इसी प्रकार के अन्य प्रयोजनों के लिए प्रयोग करना भी शामिल है। यद्यपि इसमें दास प्रथा का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, किन्तु मानव दुर्व्यापार शब्दावली में यह निःसंदेह रूप से शामिल है। संसद में अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए स्त्री तथा लड़की अनैतिक व्यापार, दमन संशोधन अधिनियम 1986 पारित किया गया। इस अधिनियम के अधीन मानव दुर्व्यापार एक दण्डनीय अपराध है। यह नागरिकों एवं अनागरिकों दोनों व्यक्तियों का अधिकार है।

अनुच्छेदः(25-28)- धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार

पंथ निरपेक्ष राज्य- यद्यपि संविधान में पंथ निरपेक्ष राज्य शब्दों को अभिव्यक्ति रूप से उल्लिखित नहीं किया गया है, किन्तु अनुच्छेद-25 से 28 इसी आशय से संविधान में सम्मिलित किए गए है। बाद में संविधान के 42वें संविधान संशोधन द्वारा प्रस्तावना में पंथ निरपेक्ष का तात्पर्य है, कि – मनुष्य अपने धार्मिक विश्वासों के लिए राज्य के प्रति उत्तरदायी नहीं है। ईश्वर की पूजा कोई जैसे भी चाहे कर सकता है। कानून किसी व्यक्ति को किसी विशेष पूजा पद्धति को अपनाने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है।

एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ के मामले में यह निर्धारित किया गया है, कि निरपेक्षता संविधान का आधारभूत ढ़ाँचा है।

अनुच्छेदः25- अन्तःकरण की और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतन्त्रता।

अनुच्छेद-25 के अनुसार सभी व्यक्तियों को अन्तःकरण की स्वतन्त्रता और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा। अन्तःकरण की स्वतन्त्रता का तात्पर्य आत्यांतिक आन्तरिक स्वतन्त्रता से है। जिसके माध्यम से व्यक्ति ईश्वर के साथ अपनी इच्छानुसार सम्बन्धों को स्थापित करता है। यह स्वतन्त्रता, जब बाह्यरूपों में व्यक्ति की जाती है, तो उसे धर्म का मानना और प्रचार करना करते है।

मानने का अधिकार अपने धार्मिक विश्वास और आस्था की सार्वजनिक और बिना भय के घोषणा करने का अधिकार है।

आचरण का अधिकार धर्म द्वारा विहित कर्त्तव्यों, कर्मकाण्डों और धार्मिक कृत्यों को प्रदर्शित करने की स्वतन्त्रता है तथा प्रचार प्रसार का तात्पर्य है। अपनी धार्मिक आस्थाओं का अन्य को प्रचार या प्रसार करना या अपने धर्म के सिद्धान्तों को प्रकट करना परन्तु इसमें किसी व्यक्ति को अपने धर्म में धर्मान्तरित करने का अधिकार सम्मिलित नहीं है। जबरदस्ती किया गया धर्मान्तरण सभी समान व्यक्तियों के लिए सुनिश्चित अन्तःकरण की स्वतन्त्रता का अतिक्रमण करता है। अनुच्छेद-25 में दो व्याख्याएँ भी दी गई है-

अनुच्छेद-25(1)- कृपाण धारण करना व लेकर चलना, सिक्ख धर्म मानने का भाग समझा जायेगा और दूसरा इस सन्दर्भ में हिन्दूओं में सिक्ख, जैन और बौद्ध सम्मिलित है।

धर्म स्वतन्त्रता के अधिकार पर निम्न आधारों पर निर्बन्धन लगाए जा सकते है-

1. सार्वजनिक व्यवस्ता, सदाचार और जनता के स्वास्थ्य हित में।

2. धर्म से सम्बन्ध आर्थिक वित्ति और राजनीतिक क्रियाओं का विनियमन।

3. समाज कल्याण और समाज सुधार।

अनुच्छेद-25(1) के अधीन प्रत्येक मनुष्य के अन्तःकरण की समान स्वतन्त्रता का अर्थ यह है, कि वह अपनी इच्छानुसार कोई भी धर्म चुन सकता है और उसमें आस्था रख सकता है। और उसे बल, कपट, लोभ से या फुसलाकर किसी अन्य धर्म में सम्परिवर्तन नहीं किया जा सकता। वह स्वेच्छा से कोई धर्म स्वीकार कर सकता है।

अनुच्छदः26- धार्मिक कार्यों के प्रबन्धन की स्वतन्त्रता।

सार्वजनिक व्यवस्ता, सदाचार और स्वास्थ्य के अधीन रहते हुए प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय या उसके किसी वर्ग को अनुच्छेद-26 के अधीन निम्न अधिकार होगा-

1 धार्मिक और पूर्त प्रयोजन के लिए संस्थाओं की स्थापना और पोषण

2 अपने धार्मिक कार्यो सम्बन्धी विषयों का प्रबन्ध करने का

3 जंगम और स्थावत सम्पत्ति के अर्जन व स्वामित्व का

4 ऐसी सम्पत्ति के विधि के अनुसार प्राशासन करने का

किन्तु राज्य उक्त अधिकारों पर लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के आधार पर निर्बन्धन लगा सकता है।अनुच्छेद-25 में अधिकार व्यक्ति को प्रदान किया गया है, जबकि अनुच्छेद-26 में अधिकार का प्रयोग संगठित संस्था जैसे धार्मिक सम्प्रदाय या उसके किसी वर्ग को प्रदान किए गए है। यह अधिक सिर्फ व्यक्तियों द्वारा स्थापित संस्थाओं को प्राप्त है। यदि कोई संस्था संसद के अधिनियम द्वारा स्थापित की जाय तो उसे धार्मिक कार्यों में प्रबन्धन की स्वतन्त्रता नहीं होगी।

जैसे- AMU (Aligarh Muslim University) जो संसद के अधिनियम द्वारा स्थापित किया गया है और उसे प्रबन्धन की स्वतन्त्रता नहीं है।

अनुच्छेदः27- धर्म की अभिवृद्धि के लिए करों से संदाय से स्वतन्त्रता।

अनुच्छेद-27 यह उपबन्धित करता है, कि कोई भी किसी व्यक्ति, किसी विशेष धर्म अथवा सम्प्रदाय की उन्नति के लिए कर लेने के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा अर्थात किसी भी व्यक्ति को कोई ऐसा कर देने के लिए विशेष धर्म या धार्मिक सम्प्रदाय की अभिवृद्धि के लिए व्यय किया जाता है। अनुच्छेद-27 कर लगाने का निषेध करता है, न कि शुल्क लगाने का (रतिलाल बनाम बम्बई राज्य)।

अनुच्छेदः28- शिक्षण संस्थाओं के बारे में स्वतन्त्रता।

अनुच्छेद-28 चार प्रकार की शैक्षणिक संस्थाओं का उल्लेख करता है।

1. राज्य द्वारा पूर्णतः पोषित संस्थाओं।

2. राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त संस्थाये।

3. राज्यनिधि से सहायता प्राप्त संस्थाएँ।

4. राज्य प्रशानसिक किन्तु किसी धर्मस्य या न्यास(ट्रस्ट) के अधीन संस्थाएँ।

- पहली की श्रेणी में आने वाली संस्थायें में किसी भी प्रकार की धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती।

- दूसरी एवं तीसरी श्रेणी में आने वाली संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा दी जा सकती है, किन्तु इसके लिए लोगों ने अपनी सहमति दे दी हो।

- चौथी श्रेणी में आने वाली संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा देने के बारे में कोई प्रतिबन्ध नहीं किया गया है।

अनुच्छेदः29 व 30- संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार।

अनुच्छेद-29(1) भारत क्षेत्र के रहने वाले नागरिकों के किसी वर्ग को, जिनकी अपनी लिपि या संस्कृति है। उसे बनायें रखने का अधिकार प्रदान करता है।

अनुच्छेद-29(2) और अनुच्छेद-15(1) में अन्तर- अनुच्छेद-29(2) तथा अनुच्छेद-15(1) में निम्नलिखित अन्तर है-

-अनुच्छेद-15(1) केवल राज्य के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है, जबकि अनुच्छेद-29(2) राज्य तथा अन्य संस्थाओं के विरुद्ध भी संरक्षण प्रदान करता है।

-अनुच्छेद-15(1) केवल सामान्य रूप से विभेद के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता ह, जबकि अनुच्छेद-29(2) एक विशेष प्रकार के कार्य से संरक्षण प्रदान करता है। जैसे- शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के मामलों में।

-अनुच्छेद-15(1) का क्षेत्र विस्तृत है और सभी नागरिकों को लागू होता है, जबकि अनुच्छेद-29(2) नागरिकों के राज्यपोषित या राज्यनिधि से सहायता प्राप्त शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश पाने की विशेष अधिकार से ही सम्बन्धित है।

-अनुच्छेद-15(1) लिंग व जन्म स्थान के आधार पर विभेद का निषेध करता है, जबकि 29(2) में इनमें से किसी आधार का उल्लेख नहीं किया गया है।

-अनुच्छेद-29(2) द्वारा शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश पाने का अधिकार व्यक्ति को एक नागरिक के रूप में प्राप्त है, न कि समुदाय के सदस्य के रूप में।अनुच्छेद-29 यह उपबन्ध करता है, कि भारत के किसी भी  भाग में रहने वाले नागरिकों के किसी भी अनुभाग को जिसकी अपनी बोली, भाषा, लिपि, संस्कृति को सुरक्षित रखने का अधिकार है। इसके अतिरिक्त किसी भी नागरिक को राज्य के अन्तर्गत आने वाले संस्थान या उससे सहायता प्राप्त संस्थान में धर्म, जाति या भाषा के आधार पर प्रवेश से रोका नहीं जा सकता।

अनुच्छेदः30- शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और उनके प्रशासन का अधिकार।

अनुच्छेद-30 के अन्तर्गत शिक्षण संस्थाएँ स्थापित करने का अधिकार दिया गया है। इसके अनुसार भाषा या धर्म पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षण संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा।

सेन्ट जेवियर्स बनाम अहमदाबाद के वाद में कहा गया कि अल्पसंख्यक वर्ग को शिक्षण संस्था के प्रशासन के अधीकार में प्रबन्ध समिति के गठन का, शिक्षण के माध्यम को विनिश्चित करने का तथा शैक्षणिक व प्रशासनिक नीति के निर्धारण का अधिकार भी शामिल है। अनुच्छेद-30(2) राज्य द्वारा शिक्षण संस्थाओं में विभेद का निषेध करता है। इसके अनुसार राज्य किसी शिक्षण संस्था को सहायता देने में इस आधार पर भेद-भाव नहीं करेगा, कि वह किसी अल्पसंख्यक वर्ग के प्रबन्धन में है।

अनुच्छेदः31- सम्पत्ति का अधिकार।

44वें संविधान संशोधन 1978 द्वारा निरसित कर इसे अनुच्छेद-300(क) में विधिक अधिकार का रूप में अन्तःस्थापित किया गया।

अनुच्छेदः32- संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

भीम राव अम्बेडकर के शब्दों में- यदि मुझसे पूछा जाय कि संविधान में कौन सा विशेष अनुच्छेद सबसे महत्वपूर्ण है। जिसके बिना यह संविधान शून्य हो जायेगा तो मै इसके सिवाय किसी दूसरे अनुच्छेद का नाम नहीं लूंगा। यह संविधान की आत्मा है।

अनुच्छेद-32(1), नागरिकों को संविधान के भाग-3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए उच्चतम न्यायालय की समुचित कार्यवाहियों द्वारा प्रचालित करने के अधिकार की गारण्टी देता है।

अनुच्छेद-32(2), उच्चतम न्यायालय को इन अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए समुचित निदेश या रिट, जिसके अन्तर्गत बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, उत्प्रेषण और अधिकारप्रेक्षा पाँच प्रकार के रिट सम्मिलित है, जारी करने की शक्ति भी प्रदान करता है।अनुच्छेद-32 के अधीन उच्चतम न्यायालय की अधिकारिता की अधिकारिता संविधान का आधारभूत ढ़ाँचा है। अतः इसे अनुच्छेद-368 के अधीन संशोधन करके समाप्त नहीं किया जा सकता। रिट अंग्रेजी कानून से लिये गये है, जहाँ इसे विशेषाधिकार रिट कहते है। इसे राजा द्वारा जारी किया जाता था, जिन्हे अब “न्याय का झरना” कहा जाता है। आगे चलकर यह अधिकार उच्च न्यायालय को अनुच्छेद-226 के अन्तर्गत रिट जारी करने का अधिकार दिया गया।

1. बन्दी प्रत्यक्षीकरण- इसे लैटिन भाषा से लिया गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-‘को प्रस्तुत किया जाय’। यह ऐसे व्यक्ति या प्राधिकार के विरुद्ध जारी किया जाता है, जिसने किसी व्यक्ति को अवैध रूप से निरुद्ध किया है। इसके द्वारा न्यायालय निरुद्ध या कारावासित व्यक्ति को अपने समक्ष उपस्थित करता है तथा उसके निरोध की वैधता की परीक्षा करता है। निरोध का विधिक औचित्य न होने पर निरुद्ध व्यक्ति को छोड़ने का आदेश दिया जाता है। इस रिट के लिए याचिका निरुद्ध व्यक्ति द्वारा या उसके किसी भी व्यक्ति द्वारा प्रस्तुत की जा सकती है।

2. परमादेश- इसका शाब्दिक अर्थ है-‘हम आदेश देते है’। यह एक नियन्त्रण है, जिसे न्यायालय द्वारा सार्वजनिक अधिकारियों को जारी किया जाता है, ताकि उनसे उनके कार्यों और उसे नकारने के सम्बन्ध में पूछा जा सके। इसे किसी भी सार्वजनिक इकाई, निगम, अधीनस्थ न्यायालयों, प्राधिकरणों या सरकार के खिलाफ समान उद्देश्य के लिए जारी किया जा सकता है। परमादेश रिट निम्नलिखित व्यक्तियों के विरुद्ध जारी नहीं किया जा सकता-

क. निजी व्यक्तियों या इकाईयों के विरुद्ध।

ख. ऐसे विभाग, जो गैर संवैधानिक है।

ग. जब कर्त्तव्य विवेकानुसार हो, जरूरी नहीं।

घ. संविदात्मक दायित्व लागू करने के विरुद्ध।

ड़. भारत के राष्ट्रपति या राज्यों के राज्यपालों के विरुद्ध।

च. उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, जो न्यायिक क्षमता के कार्यों में संलग्न हो।

3. प्रतिषेध- इसका शाब्दिक अर्थ है-‘रोकना या मना करना’। इसे किसी उच्च न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को या अधिकरणों को अपने न्यायाक्षेत्र से उच्च न्यायिक कार्यों को करने से रोकने के लिए जारी किया जाता है। यह रिट सिर्फ न्यायिक या अर्द्ध-न्यायिक कृत्यों के विरुद्ध जारी की जारी है। यह प्रशासनिक अधिकरणों, विधायी निकायों एवं निजी व्यक्ति या निकायों के विरुद्ध जारी नहीं जा सकती है।

4. उत्प्रेषण- इसका शाब्दिक अर्थ है-‘प्रमाणित होना या सूचना देना’। इसे एक उच्च न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को या अधिकरणों को या लम्बित मामलों के स्थानान्तरण को सीधे या पत्र द्वारा जारी किया जाता है। इसे अतिरिक्त न्यायिक क्षेत्र की कमी या कानूनों में खराबी के आधार पर जारी किया जा सकता है। उत्प्रेषक निवारक एवं सहायक दोनों तरह का है।

प्रतिषेध / उत्प्रेषण  अधीनस्थ न्यायालयों के विरुद्ध जारी की जाती है, किन्तु उद्देश्य पृथक है। प्रतिषेध रिट कार्यवाही के दौरान, कार्यवाही को रोकने हेतु जारी की जाती है और उत्प्रेषण रिट कार्यवाही की समाप्ति पर निर्णय को रद्द करने हेतु जारी की जाती है।

5. अधिकारप्रेक्षा- इसका शाब्दिक अर्थ है-किसी ’प्राधिकृत या वारेण्ट के द्वारा’ या ‘आपका प्राधिकार क्या है’। यह रिट ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध जारी की जाती है, जो किसी लोकपद को अवैध रूप से धारण किए हुए है। इसके द्वारा उस व्यक्ति से यह पूछा जाता है, कि वह किस प्राधिकार से उस पद को धारण किये हुए है। यदि इसका कोई सुआधारित उत्तर नहीं मिलता, तो उसे उस पद से हटा दिया जाता है।

अन्य चार रिटों से हटकर से किसी भी इच्छुक व्यक्ति द्वारा जारी किया जा सकता है, न कि पीड़ित व्यक्ति द्वारा।

अनुच्छेदः33, 34, 35 – यह मूल अधिकार के अपवाद है।